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मेरे राज्य में आदिवासी समाज से किसी ने सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास नहीं की थी। मैं यह परीक्षा पास करने वाली पहली लड़की हूं, जबकि यहां पर बहुत बड़ी जनजातीय आबादी है। यहां बहुत कम लोग हैं, जो यूपीएससी के बारे में जानकारी रखते हैं। पर मुझे भरोसा है कि मेरी उपलब्धि से प्रेरित होकर अब यहां के युवा सिविल सर्विसेज की तैयारी करेंगे और सफल भी होंगे।

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मैं केरल के सबसे पिछड़े जिले वायनाड की रहने वाली हूं। मैं यहां की कुरिचिया जनजाति से ताल्लुक रखती हूं। मेरे पिता दिहाड़ी मजदूर हैं, जो गांव के ही बाजार में धनुष-तीर बेचने का काम करते हैं, जबकि मां मनरेगा के तहत काम करती हैं। मैं और मेरे तीन भाई-बहनों का पालन-पोषण बुनियादी सुविधाओं के अभाव में हुआ।

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हालांकि हमारे समुदाय में बेटे-बेटी में ज्यादा भेदभाव नहीं होता है। लेकिन जैसा कि आमतौर पर अन्य आदिवासी परिवारों में होता है, मेरे माता-पिता ने मुझ पर कभी कोई रोक-टोक नहीं लगाई। मेरा परिवार बेहद गरीब था, पर माता-पिता ने अपनी गरीबी को मेरी पढ़ाई के आड़े नहीं आने दिया। प्राथमिक पढ़ाई वायनाड में करने के बाद मैंने कालीकट विश्वविद्यालय से अप्लाइड जूलॉजी में परास्नातक किया।

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पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं केरल में ही अनुसूचित जनजाति विकास विभाग में क्लर्क के रूप में काम करने लगी। कुछ समय वायनाड में आदिवासी हॉस्टल की वार्डन भी रही। एक बार मेरी मुलाकात एक आईएएस अधिकारी श्रीराम सांबा शिवराव से हुई। वहां पर उन्होंने जिस तरह ‘मास एंट्री’ की, उसने मेरे भीतर आईएएस अफसर बनने की ख्वाहिश जगा दी।

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चूंकि कॉलेज के समय से मेरी सिविल सेवा में दिलचस्पी थी, तो वहां जब मैंने उनसे बात की, तो कई सारी जानकारियां देने के साथ उन्होंने मुझे इस परीक्षा में भाग लेने के लिए प्रेरित भी किया। यूपीएससी के लिए पहले मैंने ट्राइबल वेलफेयर द्वारा चलाए जा रहे सिविल सेवा प्रशिक्षण केंद्र में कुछ दिन कोचिंग की।

उसके बाद तिरुवनंतपुरम चली गई और वहां तैयारी की। इसके लिए अनुसूचित जनजाति विभाग ने मुझे वित्तीय सहायता दी। मैंने मुख्य परीक्षा के लिए मलयालम को मुख्य विषय के तौर पर चुना। मुख्य परीक्षा के बाद जब मेरा नाम साक्षात्कार की सूची में आया, तो मुझे पता चला कि इसके लिए दिल्ली जाना होगा।

उस समय मेरे परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं केरल से दिल्ली तक की यात्रा खर्च वहन कर सकूं। यह बात जब मेरे दोस्तों को पता चली, तो उन्होंने आपस में चंदा इकट्ठा करके चालीस हजार रुपयों की व्यवस्था की, जिसके बाद मैं दिल्ली पहुंच सकी। मैंने तीसरे प्रयास में यह सफलता प्राप्त की।

परीक्षा के अंतिम परिणाम आने से एक दिन पहले मैं अपनी दोस्त के साथ तिरुवनंतपुरम में थी, जैसे-जैसे परिणाम का समय करीब आ रहा था, मुझ पर तनाव का असर होने लगा। मैं अपनी दोस्त के साथ कोचिंग चली गई। परिणाम आने के बाद जब सोशल मीडिया में बधाइयों का सिलसिला शुरू हुआ, मुझे उस समय तक विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि मैंने यह परीक्षा पास कर ली है।

इसके बाद मैंने अपनी मां को फोन किया और यह जानकारी दी, पर तब तक कई मीडियाकर्मी मेरे घर पहुंच गए, जो बेहद खराब हालत में था। हालांकि मुझे इससे बेहतर रैंक की उम्मीद थी, पर मेरी मेहनत का जो परिणाम मिला, वह भी ठीक है। मुझे हमेशा महसूस होता रहा है कि कोशिश और सफल होने की जिद ही आपको सफलता दिला सकती है।

सोनू मूल रूप से बिहार के समस्तीपुर जिला के रहने वाले है पिछले 4 साल से डिजिटल पत्रकारिता...